करमू-धरमू: एक संताली लोककथा (Karamu-Dharmu: Santali lok katha) झारखंड की धरती लोककथाओं की गूंज से सदियों से जीवित रही है। यहाँ की संताली जनजाति में ऐसी अनेक कथाएँ मिलती हैं जो समाज के नैतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्य को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करती रही हैं। ऐसी ही एक कथा है—”करमू-धरमू” की, जो केवल दो अनाथ चरवाहों की कहानी नहीं, बल्कि कर्तव्य, श्रद्धा और पश्चाताप से उत्पन्न पुनरुत्थान की अमर कथा है।
करम पर्व और चरवाहे बालक
मरण्डी गोत्रीय एक धनी महाजन ने ‘करम’ पर्व आयोजित किया। गांव की गलियों में करम टहनी गाड़कर रात भर स्त्री-पुरुष नाचते-गाते रहे। उस मरण्डी महाजन के यहां दो अनाथ बालक थे जो उनकी बकरियां चराया करते थे। उन बालकों ने जब ‘करम’ वृक्ष की टहनी जमीन में गाड़कर लोगों को नाचते-गाते आनन्द मनाते देखा तब वे बहुत आनंदित हुए। अतः, वे दोनों बालक जब बकरियां चराने जाते तब ‘करम’ वृक्ष की टहनियां जमीन में गाड़कर उसके चारों ओर नाचने-कूदने में मगन रहा करते। बकरियों पर उन दोनों का ध्यान नहीं रहता। वैसे में बकरियां इधर-उधर होकर किसी दूसरे की फसलें चर जाया करती थीं। अतः, जिन लोगों की फसलें मरण्डी महाजन की बकरियां चर जाया करतीं वे लोग उनसे उसकी शिकायत किया करते थे।
करमू-धरमू का क्रोध और अनिष्ट का आरंभ
महाजन ने करमू और धरमू नामक दो युवक को बच्चों की निगरानी करने के लिए भेजा कि दोनों चरवाहे क्या किया करते रहते हैं कि बकरियां दूसरों की फसलें चर जाया करती हैं। ‘करमू’ और ‘धरमू’ दोनों भाई थे, ये लोग बच्चो के पास जाकर देखा कि दोनों चरवाहे ‘करम’ वृक्ष की दो टहनियां जमीन में गाड़कर उनके चारों ओर नाच-कूद रहे हैं और गाय बकरी इधर-उधर बिखरी हुई हैं। यह देखकर करमू-धरमू बहुत क्रुद्ध हुए और दोनों चरवाहों को डांटते-फटकारते उन टहनियों को उखाड़कर फेंक दिया। उनमें से एक टहनी ‘सोमाय सोकड़ा’ नामक नाले में जा गिरी और एक बगल के पठार पर। उन्होंने जब बच्चों को करम टहनी के चारों ओर नाचते देखा, तो क्रोध में आकर उन टहनियों को उखाड़कर फेंक दिया—एक ‘सोमाय सोकड़ा’ नाले में जा गिरी और दूसरी पठार पर। यहीं से करमु और धरमु दोनों के दुर्भाग्य का आरंभ होता है—भोजन से वंचना, मजदूरी में घाटा, और अपमान का चक्र।
करम गोसाईं की चेतावनी और पुनर्प्रयास
एक दिन जब करमू-धरमू को किसी के यहां काम करते हुए समय पर जलपान नहीं मिल पाया तब वे दोनों बहुत नाराज हुए और आपस में परामर्श किया कि चलो, आज हमने जो काम किया है उसे बिगाड़ दें। उस दिन उन दोनों ने खेत की एक मेंड़ बांधी थी ताकि खेत का पानी बह न जाए। अतः, करमू-धरमू उस खेत पर जा पहुंचे। वहां वे दोनों उस बांधी गई मेंड़ को काटकर खेत का पानी बहा देना चाह ही रहे थे कि ‘करम गोसाईं’, एक आदमी के वेश में, वहां उपस्थित हुए और उन दोनों से बोले, “तुम दोनों अपने किए हुए काम को क्यों बिगाड़ने चले हो ? यह तो अच्छी बात नहीं है।” करमू-धरमू ने जवाब दिया, “बिगाड़ें नहीं तो क्या करें ? जब हमें अपने काम के एवज में समय पर न तो खाना-पीना ही मिलता है और न मजदूरी ही, तब किए हुए काम को बिगाड़ डालना ही अच्छा है।”
‘करम गोसाई’ ने कहा, अनाथ बच्चा लोग कर्म गोसाई का खेल खेल रहे थे तुमने उसे उखड कर भेक दिया तुम लोगो ने मेरा अपमान किया है इसी कर्ण तुम लोगो की ये स्थिति है .तुम्हारी दशा तभी सुधरेगी, जब तक कर्नम की टहनी को आदर पूर्वक लाकर पूजा पथ नही करोगे नही तो स्थिति और अधिक बिगड़ती जाएगी।” इस पर करमू-धरमू ने जिस काम को बिगाड़ देने को गए थे उसे नहीं बिगाड़ा और निश्चय किया गया कि ‘करम’ वृक्ष की फेंक दी गई टहनियों को खोज लाया जाय |करम’ पेड़ की जो टहनी ‘सोमाय सोकड़ा’ नाले में गिरी थी वह तब तक बहते-बहते बहुत दूर चली गई थी। करमू उसी की खोज में चल पड़ा और जो टहनी पठार में गिरी थी उसे अगोरे रहने के लिए धरमू वहां बैठा रहा।
करमू की यात्रा: लोक-प्रार्थनाओं का संग्रह
करमू की यह यात्रा साधारण नहीं थी। वह रास्ते में बेर, गूलर, बुढ़िया, चरवाहा, चिउरा वाली, घुड़सवार आदि से मिला। सभी ने अपनी-अपनी समस्याएं साझा कीं और ‘करम-कपाल’ से विनती करने की प्रार्थना की। करमू ने सबको आश्वासन दिया और बढ़ता गया— उसकी यात्रा की घटना इस प्रकार है –
आगे बढ़ने पर करमू ने देखा कि एक गूलर के पेड़ के नीचे उसके पके हुए फल गिरे पड़े हैं; परंतु, जब उसने उन्हें चुनकर खाना चाहा तब देखा कि उनमें भी कीड़े भरे हुए हैं। फलतः, उन फलों को भी वह खा न सका और आगे बढ़ चला। तभी उस गूलर के पेड़ ने उसने पूछा, “भई, तुम कहां जा रहे हो ?” करमू ने जवाब दिया कि वह अपने ‘करम-कपाल’ की खोज में जा रहा है। अतः, उस पेड़ ने भी उससे अनुरोध किया कि कृपया उसके लिए भी ‘करम-कपाल’ लेते आए। करमू ने उसे आश्वस्त किया कि ठीक है, वैसा ही करूंगा।
आगे बढ़ने पर करमू ने देखा कि एक जगह एक चरवाहे की बहुत-सी गौएं चर रही हैं और एक गाय के थन से उसका बछड़ा लगा हुआ है। अतः, उसने सोचा कि वह गाय पेन्हा गई होगी, उसी का दूध दूहकर पी लूंगा; परंतु, जैसे ही वह उस गाय के पास पहुंचा वैसे ही उसका बछड़ा गाय का थन छोड़कर अलग हो गया। करमू जब उसे दूहने लगा तब एक बूंद भी दूध उसके थन से नहीं निकला। करमू अछता-पछताकर वहां से आगे बढ़ने को हुआ। तभी चरवाहे ने उससे पूछा, “भई, तुम कहां जा रहे हो?” करमू बोला, “मैं अपना ‘करम-कपाल’ खोज लाने जा रहा हूं।” तब, उस चरवाहे ने उससे अनुरोध किया कि उसके (चरवाहे के) लिए भी कृपया ‘करम-कपाल’ लेते आए। करमू ने उसे भी आश्वस्त किया और आगे बढ़ चला।
चलते-चलते करमू को एक जलाशय के घाट पर एक बुढ़िया मिली जो अपने कपड़े फींच रही थी। उस बुढ़िया ने करमू को देखकर उससे जिज्ञासा की, “बबुआ, कहां जा रहे हो तुम ?” करमू ने पहले की तरह ही जवाब दिया कि मैं अपने ‘करम-कपाल’ की खोज में जा रहा हूं। तब, उस बुढ़िया ने उससे कहा, “बबुआ, मेरे लिए भी कुछ करते आना। देखो न, कपड़ा फींचने के लिए जब भी मैं पाट पर कपड़ा पटकती हूं तब मेरा कपड़ा पाट पर ही लटका रह जाया करता है, उससे छूटता ही नहीं है।” करमू ने उस बुढ़िया के लिए भी ‘करम-कपाल’ से आवश्यक निवेदन करने का आश्वासन उसे दिया और आगे बढ़ चला।
वहां से आगे बढ़ने पर करमू को खर का एक बोझा अपने सिर पर लिए हुए एक औरत मिली। उसने करमू से पूछा, “भैया, कहां जा रहे हो तुम ?” करमू ने उसे भी वही जवाब दिया कि मैं अपना ‘करम-कपाल’ खोज लाने जा रहा हूं। तभी उस औरत ने उससे कहा, “कृपया मेरे लिए भी निवेदन करते आना। देखो न, यह खर का बोझा मेरे सिर पर ऐसा चिपक गया है कि उतारे उतरता ही नहीं है।” करमू उसे भी आश्वस्त करके आगे बढ़ चला। आगे जाने पर करमू को अपने घोड़े पर सवार एक आदमी मिला। उसने भी करमू से पूछा, “भई, तुम कहां जा रहे हो?” उत्तर में करमू ने वही कहा जो उससे पहले और-और लोगों से कह चुका था। इस पर उस घुड़सवार ने उससे अनुरोध किया कि उसका निवेदन भी ‘करम-कपाल’ से कह सुनावे; क्योंकि जब भी वह अपने घोड़े को ऐंड़ मारता है तब उसका घोड़ा आगे बढ़ने के बजाय पीछे को चल पड़ता है। करमू ने उस घुड़सवार को भी आश्वस्त किया और आगे बढ़ चला। कुछ दूर जाने पर करमू को चिउरा बेचनेवाली एक औरत मिली। दोनों में वही बातें हुई जैसी कि उससे पहले के लोगों से हुई थीं। उस पर उस औरत ने कहा कि मैं जब कभी चिउरा कूटती हूं तब सब चूर-चूर हो जाता है जिससे वह चिउरा कोई खरीदना नहीं चाहता है। अतः, कृपया उसका निवेदन भी ‘करम-कपाल’ तक पहुंचा दे। करमू ने उस औरत को भी आश्वासन दिया और आगे बढ़ चला।
विनती और करम गोसाईं की वापसी
जाते-जाते उसने देखा कि एक जगह नाले के किनारे ‘करम’ वृक्ष की वह टहनी, जिसे उसने ‘सोमाय सोकड़ा’ में फेंक दिया था, अटकी हुई है। उसे देखते ही करमू ने कर जोड़कर उस टहनी को प्रणाम किया। इस पर उस टहनी ने, जो ‘करमा’ के नाम से जानी जाती थी, करमू से पूछा कि वह किस लिए आया है। करमू ने विलाप करते हुए उत्तर दिया, “आपके लिए ही मैं आया हूं, करमा बाबा ! आपके लिए ही यहां पधारा हूं।” उस पर ‘करमा बाबा’ ने उत्तर दिया, “नहीं जाऊंगा, करमू ! मैं नहीं लौटूंगा। तुमने तो स्वयं गुस्से में आकर मुझे ‘सोमाय सोकड़ा केरो डाड़ी’ नाले में फेंक दिया था। उसी में बहते-बहते मैं इस बड़ी जल-राशि तक आ पहुंचा हूं। अब मैं नहीं लौटूंगा, करमू ! वापस नहीं जाऊंगा।” करमू बहुत गिड़गिड़ाया और विनीत स्वर में बोला, “आइए, करमा बाबा ! आइए, लौट चलिए। आपके लिए मैं बारह वर्षों से उपवास किए हुए हूं, तेरह वर्षों से पिपासित हूं। मुझ पर कृपा कीजिए, करमा बाबा !” यह कहते हुए करमू रो पड़ा, विलाप करने लगा। करमा बाबा ने कहा, “करमू! तुम रोओ मत, विलाप मत करो; मैं लौटूंगा नहीं, वापस नहीं जाऊंगा। तुमने तो स्वयं गुस्से में आकर मुझे ‘सोमाय सोकड़ा केरो डाड़ी’ नाले में डाल दिया था जहां से बहते-बहते यहां पहुंचकर मैं इस करमू ने रो-रोकर करम बाबा से क्षमा मांगी, विनय किया, भूख-प्यास से तपस्या की बात कही। अंततः करम बाबा का हृदय पिघला और वे अंगोछे में बंधकर करमू के साथ चल पड़े। रास्त में करमू ने सबकी समस्याओं को उनके कारण बताकर सुलझाया—बेर और गूलर ने अपनी गलती मानी, चरवाहा दूध बाँटने को तैयार हुआ, और सबके कष्ट दूर हुए।
इस पर करमू और अधिक विलाप करने लगा और बोला, “बाबा ! मुझसे भूल हो गई थी। मुझे क्षमा कर दें। आइए, मैं आपको अंकवार लें: आइए, मैं अपने अंगोछे में लेकर आपको अपने यहां ले जाऊं। वहीं आपको दध से नहलाऊंगा, दही से स्नान कराऊंगा। हे बाबा! मैं आपको अपनी गोद में ले चलूंगा।” करम के विलाप पर करमा बाबा को, जो जल में तैर रहे थे, दया आ गई। वे एक जगह सुस्थिर हो गए। तब, करमू जल में उतरा और एक ‘सोल’ मछली पर अपने पांव रखकर करमा बाबा तक जा पहुंचा और उन्हें (करमा बाबा को) अपने अंगोछे में उठाकर अपने अंक में ले लिया और उस जल-राशि से बाहर हो अपने घर चल पड़ा। रास्ते में उसे वह आदमी मिला जिसकी चूतड़ से उसका पीढ़ा सटा हुआ था। करमू को देखते ही वह आदमी उससे पूछ बैठा, “क्या तुमने मेरा अनुरोध करमा बाबा से किया ?” करमू ने कहा, “जी हां, कर दिया है; किंतु, याद रखो, तुम्हारे यहां किसी अतिथि के आने पर तुम उसे बैठने को भी नहीं कहा करते हो, उल्टे उसका तिरस्कार किया करते हो। इसी से यह पीड़ा तुम्हारे चूतड़ से सट गया है।” इस पर उस आदमी ने अपनी गलती स्वीकार की और वादा किया कि अब वह वैसा नहीं किया करेगा, अतिथियों का उचित स्वागत-सत्कार किया करेगा। तब वह पीढ़ा उसके चूतड़ से हट गया। आगे बढ़ने पर करमू को चिउरा बेचनेवाली औरत मिली जिसने जानना चाहा कि उसका अनुरोध करमा बाबा तक पहुंचाया गया है या नहीं। करमू ने उसका सकारात्मक उत्तर दिया और कहा, “किसी गरीब-गुरबा के मांगने पर तुम किसी को कुछ नहीं देती हो, इसी से तुम्हारा चिउरा चूर-चूर हो जाया करता है।” इस पर उस औरत ने भी अपनी गलती स्वीकार की और वादा किया कि अब वह फिर कभी वैसी गलती नहीं किया करेगी। तब, उसका चिउरा आप-से-आप ठीक हो गया और उसने अपनी डलिया से कुछ चिउरा निकालकर करमू को दिया। करमू वहां से आगे बढ़ा तो उसे वह आदमी मिला जो घोड़े पर चढ़ा हुआ था। उसकी भी जिज्ञासा हुई कि उसका अनुरोध करमा बाबा तक पहुंचाया गया है या नहीं। करमू ने उसे भी सकारात्मक उत्तर दिया और कहा, “किसी को कोई जरूरत पड़ने पर तुम अपना घोड़ा किसी को छूने तक नहीं देते हो। उसी का फल है कि तुम घोड़े की पीठ पर ऐसे सट गए हो कि उतर ही नहीं पा रहे हो।” इस पर उस घुड़सवार ने भी अपनी गलती कबूल कर ली और कहा कि अब वह वैसा नहीं किया करेगा। तब, वह घोड़े की पीठ से आसानी से उतर गया और अपना घोड़ा उसने करमू को दे दिया कि वह उस पर चढ़कर अपने गन्तव्य स्थान को जाय। करमू उस घोड़े पर चढ़कर आगे बढ़ा तो उसे वह औरत मिली जो खर का बोझा अपने सिर पर लिए हुए थी। सिर पर अज्ञानता का बोझ था — वह दूसरों की गलतियों पर चुप रहती थी। जब करमू ने उसे यह समझाया, तो उसने गलती मानी और बोझ सचमुच उतर गया।
घाट पर कपड़े फींचती दूसरी महिला अपने स्वार्थ में डूबी थी, दूसरों को परेशान करती थी। करमू ने उसे आईना दिखाया — गलती मानते ही उसके कपड़े चिपके नहीं रहे।
चरवाहा, जो जरूरतमंदों को दूध देने से कतराता था, यही कारण था कि उसकी गायें भी उससे रूठी रहती थीं। लेकिन जैसे ही उसने सेवा का संकल्प लिया, करमू को कुछ गायें भेंट कर दीं।
गूलर का पेड़, जो वर्षों से कीड़ों से पीड़ित था, करमू के स्पर्श से सुधर गया — उसके फल अब निर्मल हो चुके थे।
बेर का पेड़, जो अपने फल बाँटना नहीं चाहता था, अपने काँटों से लोगों को चोट पहुँचाता था। इस व्यवहार ने ही उसके फल को कीड़ायुक्त बना दिया। करमू ने उसे चेताया, और शायद वह भी सुधार की राह पर चल पड़ा।
इन सबके पीछे एक गूढ़ संदेश छिपा है — जब हम अपनी गलतियों को स्वीकारते हैं और दूसरों की भलाई का सोचते हैं, तभी हमारे जीवन की समस्याएं मिटती हैं।
उत्सव का पुनः आरंभ: करम पर्व की स्थापना
घर लौटकर करमू ने करम गोसाईं की स्थापना की। गांववालों ने साथ मिलकर पूजा की, दूर्वा, धान, भेलावंजा से पूजन हुआ और रात भर ‘करमा नृत्य’ हुआ। यहीं से ‘काराम यज्ञ’ की परंपरा प्रारंभ हुई, जो आज भी संताल समाज में श्रद्धा और उल्लास से मनाया जाता है।
करमू-धरमू: एक संताली लोककथा का उपसंहार
यह कथा हमें सिखाती है कि कर्म, कर्तव्य और श्रद्धा—तीनों के संतुलन से ही जीवन में समृद्धि आती है। करमू-धरमू की यह यात्रा न केवल संताली संस्कृति की एक अमूल्य थाती है, बल्कि समूचे मानव समाज के लिए एक नैतिक आदर्श भी।
स्रोत: मौलिक रचनात्मक पुनर्लेखन, संताली लोककथा पर आधारित।
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