झारखण्ड की बाथुड़ी जनजाति (Bathudi Tribe);- झारखण्ड की अल्पसंख्यक और विशिष्ट जनजातियों में महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी जनसंख्या सीमित है, लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से यह समुदाय अद्वितीय है। बाथुड़ी (Bathudi)मुख्य रूप से पूर्वी सिंहभूम जिले के पहाड़ी क्षेत्रों और घाटशिला अनुमंडल में, विशेष रूप से स्वर्णरेखा नदी के आसपास निवास करते हैं। उड़ीसा राज्य में भी इनकी अच्छी खासी उपस्थिति है। ब्रिटिश मानवविज्ञानी रिज़ले ने बथुड़ी (Bathudi) को “एक छोटा आदिम जनजाति समूह” कहा है, जिसकी उत्पत्ति स्पष्ट नहीं है। वहीं, सुप्रसिद्ध मानवशास्त्री शरतचंद्र राय ने मयूरभंज के बथुड़ी (Bathudi) समुदाय का गहन अध्ययन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि वे हिंदू समाज की रीति-नीतियों से अत्यंत प्रभावित हो चुके हैं और विवाह जैसे संस्कारों में ब्राह्मणों की सेवाएँ ग्रहण करते हैं।
सामाजिक पहचान और गोत्र व्यवस्था
बाथुड़ी समुदाय पांच प्रमुख गोत्रों में विभाजित है:
सलुका
कोक
डाहुक
नाग
पानीपत
इनमें एक ही गोत्र के सदस्य आपस में भाई-बहन माने जाते हैं, अतः उनका आपसी विवाह वर्जित है।धालभूम क्षेत्र के बाथुड़ी लोग खुद को ‘बहुतुली क्षत्रिय’ कहकर गौरवान्वित महसूस करते हैं और ‘आदिवासी’ शब्द का प्रयोग कम करते हैं। वहीं दूसरी ओर इनके भीतर आदिवासी सांस्कृतिक तत्व अब भी प्रचलित हैं।
बाथुड़ी जनजाति की पारंपरिक व्यवस्था
पंचायत एवं नेतृत्व- बाथुड़ी समाज में देहरी (Dehari) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। देहरी गांव का पुजारी भी होता है और परंपरागत पंचायत का प्रमुख भी। यह पद वंशानुगत होता है।
पारिवारिक संरचना-इनके समाज में एकल परिवार की परंपरा है। विवाह के बाद नवविवाहित जोड़े अलग रहते हैं। पैतृक संपत्ति का बंटवारा पिता के निधन के पश्चात होता है।
जीवन चक्र से जुड़ी परंपराएं
जन्म और मृत्यु संबंधित रीति-रिवाज- बच्चे के जन्म के बाद परिवार में 9 दिनों तक अछूत मनाया जाता है। 9वें दिन शुद्धिकरण और भोज का आयोजन होता है। माँ के लिए यह अवधि 21 दिनों की होती है, जिसके बाद स्नान कर वह सामाजिक जीवन में लौटती है।
मृत्यु परंपराएं– मृत व्यक्ति के मुंह में यदि उपलब्ध हो तो गंगाजल दिया जाता है। शव को ससान (श्मशान) में स्नान कराया जाता है, हल्दी और तेल लगाया जाता है तथा तुलसी के पत्तों से पानी का छिड़काव होता है।तीन दिन तक मृतक के घर में खाना नहीं बनता।दसवें दिन सभी लोग पवित्र स्नान करते हैं। ग्यारहवें दिन ‘श्राद्ध’ होता है जिसमें गांववालों को मांसाहारी भोजन कराया जाता है।संपन्न परिवारों में श्राद्धकर्म गया जाकर भी किया जाता है।चेचक, कॉलरा या कुष्ठ रोग से मृत व्यक्ति को जंगल में फेंकने की परंपरा है। गर्भवती स्त्री की मृत्यु होने पर उसके पेट से बच्चा निकालकर दोनों को ससान में दफनाया जाता है।
बाथुड़ी जनजाति के प्रमुख त्योहार एवं धार्मिक परंपराएं
प्रमुख देवी-देवताओं की पूजा -बाथुड़ी विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। इनमें हिन्दू देवी-देवताओं का प्रभाव दिखाई देता है, लेकिन इनके पर्व-त्योहारों में विशिष्ट आदिवासी परंपराएं भी शामिल हैं।
प्रमुख पर्व-त्योहार- त्योहार का नाम संक्षिप्त विवरण रासपूर्णिमा कार्तिक-अगहन माह में; बरहम देवता की पूजा; बकरे की बलि, मिठाई, गांजा चढ़ाया जाता है। सरोल पूजा धान काटने से पूर्व; प्रत्येक परिवार ग्राम देवता को नया धान अर्पित करता है।असारी पूजा धान रोपाई से पहले सामूहिक पूजा; बकरे की बलि; देवरी की अनिवार्यता।धुलिया पूजा होली के बाद; ग्राम देवता को नया फल चढ़ाया जाता है, उसके बाद ही फल खाने की अनुमति।पउला पूजा अच्छी वर्षा एवं फसल के लिए; जेठ माह में देवरी द्वारा बकरे की बलि।शीतला पूजा चेचक आदि महामारी से बचाव के लिए; चैत माह में।मकर संक्रांति कृषि उपकरणों की पूजा; नए वस्त्र पहनना एवं खुशियां मनाना।वंदना पूजा कार्तिक माह में; मवेशियों के दुःख-दर्द के ध्यान में रखते हुए उनका उत्सव
बाथुड़ी जनजाति के आर्थिक स्थिति
- अधिकांश बथुनी लोग आज भी कृषि और वनोपज पर निर्भर हैं।
- भूमिहीनता और सीमित संसाधनों के कारण इनकी आय अस्थिर रहती है।
- कुछ क्षेत्रों में मनरेगा जैसी योजनाओं से रोजगार मिला है, लेकिन यह अस्थायी समाधान है।
बाथुड़ी जनजाति के शिक्षा और साक्षरता
- शिक्षा का स्तर धीरे-धीरे बढ़ रहा है, लेकिन साक्षरता दर अभी भी राज्य औसत से कम है।
- भाषाई और सांस्कृतिक दूरी के कारण बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं।
- सरकारी योजनाओं के बावजूद शिक्षा में निरंतरता की कमी है।
बाथुड़ी जनजाति के स्वास्थ्य सेवाएँ
- बथुनी समुदाय के लोग प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं।
- पोषण की कमी, मातृ-शिशु मृत्यु दर, और पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों पर निर्भरता आम है।
- सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं की पहुँच सीमित है।
बाथुड़ी जनजाति के सामाजिक पहचान और भेदभाव
- बथुनी जनजाति को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा प्राप्त है, लेकिन सामाजिक भेदभाव अब भी मौजूद है।
- शहरीकरण और बाहरी प्रभावों के कारण इनकी पारंपरिक संस्कृति पर संकट है।
- कुछ क्षेत्रों में धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का क्षरण हो रहा है।
निष्कर्ष : बाथुड़ी जनजाति सीमित जनसंख्या में होते हुए भी झारखण्ड की सांस्कृतिक विविधता में अहम भूमिका निभाती है। ये समाज अब पूरी तरह अलग-थलग नहीं रहा, बल्कि आधुनिक सामाजिक धारा से जुड़ते हुए अपनी सांस्कृतिक पहचान को भी संजोए हुए है। बथुनी जनजाति आज संक्रमण काल में है—जहाँ एक ओर वे आधुनिकता की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अपनी सांस्कृतिक जड़ों को बचाने की चुनौती भी है। यदि नीतिगत ध्यान, स्थानीय नेतृत्व, और सांस्कृतिक संरक्षण को प्राथमिकता दी जाए, तो यह समुदाय सामाजिक रूप से सशक्त बन सकता है।
इसे भी पढ़ें