संताल संस्कृति की जड़ें उस समय की हैं जब पृथ्वी केवल जल से ढकी थी और जीवन की कोई स्पष्ट रेखा नहीं बनी थी। उसी अनादि काल में ‘ठाकुर जिउ’ — सृष्टिकर्ता — ने दो मानव शिशुओं को जन्म दिया, जो ‘हांस-हांसिल’ पक्षियों के घोंसले में उत्पन्न हुए थे। यह कथा केवल एक पौराणिक आख्यान नहीं, बल्कि संताल समाज की आत्मा है — जिसमें प्रकृति, पशु, देवता और मानव एक साझा जीवन-तंत्र में बंधे हैं।जब ‘माराङ बुरू’ — संतालों के महादेव — ने स्वर्गपुरी से ‘आइनी-बाइनी कपिला’ गौओं को पृथ्वी पर लाकर मानव शिशुओं के पालन की व्यवस्था की, तब से ही संताल जीवन में गायों का विशेष स्थान बना। यही वह क्षण था जब पृथ्वी पर कृषि, पशुपालन और सांस्कृतिक चेतना का आरंभ हुआ।
यह “प्रारंभ” खंड उस मूलगाथा को उद्घाटित करता है — जहां जल, मिट्टी, पक्षी, केंचुआ, कछुआ, गौएं और देवता मिलकर जीवन की नींव रखते हैं। यह खंड न केवल संताल संस्कृति की उत्पत्ति को दर्शाता है, बल्कि उस भावनात्मक और आध्यात्मिक यात्रा को भी उजागर करता है जो आज के सोहराय पर्व तक पहुंचती है
सोहराय पर्व की उत्पत्ति: संताल संस्कृति की पौराणिक कथा
बहुत पुरानी बात है। जब पृथ्वी पूरी तरह जल से ढकी थी, तब ‘ठाकुर जिउ’ — सृष्टिकर्ता — ने दो मानव शिशुओं को जन्म दिया। ये शिशु ‘हांस-हांसिल’ पक्षियों के घोंसले में जन्मे थे, जो ‘ठकुराइन’ की हंसली हड्डी के मैल से बने थे। ठाकुर जिउ को चिंता हुई कि इन नवजातों का पालन-पोषण कैसे होगा? स्वर्गपुरी में उस समय ‘आइनी-बाइनी कपिला’ नामक नर-मादा गायें थीं। ठाकुर जिउ ने ‘माराङ बुरू’ — महादेव — को बुलाया और कहा, “इन गौओं को पृथ्वी पर ले जाकर इन बच्चों के आहार की व्यवस्था करो।” तब तक पृथ्वी की रचना हो चुकी थी — जल के भीतर से केंचुए ने मिट्टी निकालकर कछुए की पीठ पर धरती बनाई थी। माराङ बुरू स्वर्ग से ‘तोड़े सुताम’ (अदृश्य तंतु) के सहारे पृथ्वी पर आए और बहुत विनती करके कपिला गौओं को पृथ्वी पर ले आए। उन्होंने उन्हें जंगल में छोड़ा और साथ ही कुछ मोटे अनाजों के बीज भी पृथ्वी पर बिखेर दिए — जैसे कौनी, सांवां आदि। समय के साथ मानव दंपति — पिलचू हाड़ाम और पिलचू बूढ़ी — और कपिला गौओं की वंशवृद्धि हुई। मनुष्य ने हाथ से चलने वाले हलों से खेती करना शुरू किया। तब माराङ बुरू ने कहा, कहते हैं, ‘ठाकरान’ (ठकुराइन) की हंसली हड्डी के पास के मैल से बने हांस-हांसिल (हंस-हसिनी) पक्षियों ने विशाल जल-राशि पर तैरते हुए ‘बिरना’ (खस घास) के झाड़ में अपना घोंसला बनाया था जहां ‘हांसिल’ (हंसिनी) ने दो अंडे दिए थे, जिनसे दो मानव-शिशु उत्पन्न हुए थे (देखें, इस संग्रह की पहली कथा)। तय, ‘ठाकुर जिउ’ (सृष्टिकर्ता) को चिंता हुई कि उन दोनों मानव-शिशुओं के आहार की व्यवस्था की जाए।
कपिला गौओं का आगमन और कृषि की शुरुआत
उस समय स्वर्गपुरी में ‘आइनी-बाइनी कपिला’ गाएं थीं। ‘ठाकुर जिउ’ ने ‘भाराङ बुरू’ (महा देव) को अपने पास बुलाकर कहा कि उन गौओं को पृथ्वी पर ले जाएं। तब तक जल-राशि की सतह पर केंचुए द्वारा जल-राशि के अंदर से उठाई गई मिट्टी से, जल-राशि की सतह पर स्थित कछुए की पीठ पर, पृथ्वी बना ली गई थी। ‘माराङ बुरू’ स्वर्गपुरी में ही थे, परंतु वे पृथ्वी पर ‘तोड़े सुताम’ (काल्पनिक तंतु) के सहारे आसानी से आ-जा सकते थे। ‘ठाकुर जिउ’ के आदेशानुसार, ‘माराङ बुरू’ बहुत अनुनय-विनय करके नर-मादा ‘आइनी-बाइनी कपिला’ गौओं को पृथ्वी पर ले आए और उन्हें जंगल में रखा। साथ ही, पृथ्वी पर ‘माराङ बुरू’ ने कौनी, सांवां आदि कुछ मोटे अनाजों के बीज जहां-तहां छींट दिए। कालक्रम में प्रथम मानव-दंपति, पिलचू हाड़ाम-पिलचू बूढ़ी’ (लघु मानव-दंपति) तथा ‘कपिला गौओं’ की वंश-वृद्धि हो गई। मानव-संतानें ‘बाकुक् नाहेल’ (हाथों से चालित हलों) से जमीन जोतकर अनाज उपजाना सीख चुकी थीं। उस पर ‘माराङ बुरू’ ने उनलोगों से कहा, “हस्त-चालित हलों से कब तक जमीन जोतते रहोगे ? जाओ, जंगल से नर-मादा कपिला गौओं को ले आओ। उनमें से नर-गौओं (बैलों) से हल चलाया करना और मादा-गौओं (गायों) के दूध खाया-पीया करना।”
तब, वे मानव उन गौओं की खोज में जंगल को गए। वहां उन्हें वे गौएं झुंड में एक ही जगह इकट्ठी मिल गईं। अतः, वे (मानव) गौओं को जंगल से हांककर अपने यहां ले आए जहां उन पशुओं के सींगों में तेल-सिंदूर लगाकर उनका स्वागत किया गया, उनका परिछन किया गया और उन्हें ‘गोहाल’ (मवेशी-घर) में रखा गया, दूसरे दिन उन मवेशियों को ‘गोहाल’ से निकालकर चरने के लिए, चरवाहों के साथ, बाहर भेज दिया गया और गोहालों को साफ-सुथरा करके पूजा की गई। सांझ हो जाने पर वे सभी मवेशी गोहालों में अपनी-अपनी जगह पर आ गए। तब, धूप-दीपों के साथ उन मवेशियों का परिछन किया गया। साथ ही, गीत-नाद के साथ उस दिन रात्रि-जागरण किया गया। फिर, तीसरे दिन, बैलों को अपने-अपने दरवाजे पर निकालकर, उन्हें सजा-धजाकर गली में गाड़े गए खूंटों में बांधकर हड़काए जाते हुए ‘खेल-कूद’ किंया जाता रहा। चौथे दिन घर-घर से कुछ-कुछ अन्न-पान मांगकर सहभोज किया गया और पांचवें दिन ‘बेझा तुञ’ (लक्ष्य-वेध) करके गोधन-पर्व की समाप्ति की गई। कहते हैं, ‘सोहराय’ पर्व का आरंभ उसी दिन से हुआ है। उस पर्व का पहला दिन ‘गोट पूजा’ का, दूसरा दिन ‘गोहाल-पूजा’ का, तीसरा दिन ‘खुण्टाउ’ (बैल खूंटने) का, चौथा दिन ‘जाले’ का और पांचवां दिन ‘बेझा तुञ’ का दिन कहलाता है। यह पर्व प्रति वर्ष बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।’ सोहराय संताल लोगों का सबसे बड़ा त्योहार है जिसमें मुख्यतः गो-पूजन किए जाने का रिवाज है। यह पर्व कहीं-कहीं (दक्षिण बिहार उड़ीसा आदि में) दीपावली के अवसर पर परंतु कहीं-कहीं (संताल परगना आदि में) मकर संक्रांति से ठीक पहले भिन्न-भिन्न गांवों में अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न दिनों में हुआ करता है। उस अवसर पर पांच दिनों तक गांव-भर में नाच-गान की धूम मची रहा करती है।माराङ बुरू (महा देव) अर्थात् सबसे बड़े देवता के रूप में संताल लोगों द्वारा पूजित हैं। उसी प्रकार जाहेर एरा (जाहेर देवी) इनलोगों की सबसे प्रमुख देवी हैं। दोनों प्रत्येक संताल-गांव के जाहेरथान नामक धर्मस्थान में संस्थापित (पाषाण-खंडों के रूप में) रहते हैं। जाहेरथान में कोई देवालय नहीं होता पाषाण-खंडों के रूप में इनलोगों के देवी-देवता विभिन्न वृक्षों के मूलों के पात संस्थापित रहते हैं।
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