कांटारा

Kantara Origins of the Divine | कांटारा जैसे लोक उत्सवों की उत्पत्ति, परंपरा और सांस्कृतिक महत्व |भूत कोला से कांटारा तक: दक्षिण भारत की दिव्य लोक परंपरा

भारत की सांस्कृतिक विविधता में लोक उत्सवों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। ये उत्सव केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि समाज की आत्मा, प्रकृति से जुड़ाव और पीढ़ियों के संवाद का माध्यम होते हैं। कांटारा फिल्म ने दक्षिण भारत की एक ऐसी परंपरा को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया, जो देवता, जंगल और जन के बीच एक आध्यात्मिक संबंध को दर्शाती है। इस फिल्म की आत्मा है — भूत कोला, एक पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठान जो कर्नाटक के तुलु नाडु क्षेत्र में सदियों से जीवित है। भूत कोला में एक पात्र विशेष श्रृंगार और वेशभूषा में देवता का रूप धारण करता है और नृत्य, संगीत तथा मंत्रोच्चार के माध्यम से देवता की उपस्थिति को दर्शाता है। यह परंपरा न केवल आध्यात्मिक अनुभव है, बल्कि सामाजिक न्याय और लोक विश्वास का प्रतीक भी है। कांटारा ने इस परंपरा को सिनेमाई रूप में प्रस्तुत कर दर्शकों को यह समझने में मदद की कि लोक उत्सव केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि वर्तमान की चेतना हैं। इस लेख में हम कांटारा जैसे लोक उत्सवों की उत्पत्ति, परंपरा और सांस्कृतिक महत्व को विस्तार से समझेंगे — ताकि इन जीवंत परंपराओं की गहराई और दिव्यता को महसूस किया जा सके

कांटारा क्या है?

कांटारा 2022 में रिलीज़ हुई एक कन्नड़ फिल्म है, जिसका निर्देशन और अभिनय ऋषभ शेट्टी ने किया है। यह फिल्म कर्नाटक के तटीय क्षेत्र तुलु नाडु की पारंपरिक धार्मिक परंपरा भूत कोला पर आधारित है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे एक व्यक्ति देवता का रूप धारण करता है और समाज को न्याय, मार्गदर्शन और सुरक्षा प्रदान करता है।
 फिल्म की विशेषताएं:
• भूत कोला और दैव आराधना जैसे अनुष्ठानों का जीवंत चित्रण
• देवता और मानव के बीच संवाद की परंपरा
• भूमि विवाद, सामाजिक संघर्ष और आध्यात्मिक हस्तक्षेप की कथा
• प्रकृति, आत्मा और आस्था का त्रिगुण संतुलन

 कांटारा चर्चा में क्यों है?

1. सांस्कृतिक पुनर्जागरण:
फिल्म ने जनजातीय परंपराओं को वैश्विक मंच पर पहुंचाया, जिससे भूत कोला जैसी परंपराओं के प्रति लोगों की रुचि बढ़ी।
2. आध्यात्मिक गहराई:
कांटारा ने दर्शकों को यह महसूस कराया कि लोक परंपराएं केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवंत आत्मिक अनुभव हैं।
3. सामाजिक न्याय का चित्रण:
फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे देवता के रूप में पात्र गांव के विवादों का समाधान करता है — यह जनजातीय न्याय व्यवस्था का प्रतीक है।
4. लोकप्रियता और प्रभाव:
कांटारा ने न केवल बॉक्स ऑफिस पर सफलता पाई, बल्कि सांस्कृतिक विमर्श को भी जन्म दिया। इसके दृश्य, संगीत और भावनात्मक गहराई ने दर्शकों को गहराई से प्रभावित किया।

कांटारा फिल्म में भूत कोला का चित्रण

फिल्म कांटारा में भूत कोला को न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में, बल्कि एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
मुख्य पात्र शिवा के माध्यम से दर्शाया गया है कि कैसे देवता की शक्ति व्यक्ति के भीतर प्रवेश करती है और समाज को दिशा देती है।
फिल्म में दिखाया गया दैव और राजा के बीच का समझौता, भूमि विवाद और देवता की हस्तक्षेप — यह सब भूत कोला की परंपरा से प्रेरित है।

भूत कोला क्या है? – एक दिव्य लोक परंपरा का विस्तार

भूत कोला दक्षिण भारत, विशेषकर कर्नाटक के तुलु नाडु क्षेत्र की एक प्राचीन और जीवंत धार्मिक परंपरा है। यह एक ऐसा अनुष्ठान है जिसमें दैव (स्थानीय देवता) की पूजा की जाती है, और यह पूजा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक संवाद का माध्यम भी होती है।

भूत कोला की उत्पत्ति: सदियों पुरानी आस्था

  • भूत कोला की उत्पत्ति लगभग 500 से 700 वर्ष पूर्व मानी जाती है। यह परंपरा नॉन-वेदिक है, यानी ब्राह्मणवादी पूजा पद्धति से अलग।
    इसकी जड़ें तुलु जनजातियों की आस्था में हैं, जिन्होंने जंगल, भूमि और जल स्रोतों को देवता का रूप मानकर पूजा शुरू की।
     पौराणिक संदर्भ:
  •  पंजुरली दैव की कथा के अनुसार, देवी पार्वती ने एक वराह को जन्म दिया जो पृथ्वी की रक्षा के लिए भेजा गया।
  • इसी वराह रूप को पंजुरली कहा गया, और उसकी पूजा भूत कोला के रूप में की जाती है।

भूत कोला शब्द की व्याख्या

• भूत: यहां “भूत” का अर्थ भूतकालीन आत्मा या प्रेत नहीं है, बल्कि दैव यानी देवता या दिव्य आत्मा है जो समुदाय की रक्षा करता है।
• कोला: तुलु भाषा में “कोला” का अर्थ है उत्सव या अनुष्ठान।
इस प्रकार, भूत कोला का अर्थ है दैव आराधना का उत्सव — एक ऐसा अनुष्ठान जिसमें देवता को आमंत्रित किया जाता है और उनकी उपस्थिति को नृत्य, संगीत और मंत्रों के माध्यम से अनुभव किया जाता है।

भूत कोला अनुष्ठान की प्रक्रिया

1. पात्र का चयन
एक विशेष व्यक्ति, जिसे पात्र कहा जाता है, को देवता की शक्ति धारण करने के लिए तैयार किया जाता है। यह व्यक्ति मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक रूप से प्रशिक्षित होता है।
2. वेशभूषा और श्रृंगार
पात्र पारंपरिक वस्त्र पहनता है, जिसमें रंग-बिरंगे कपड़े, मुखौटा, आभूषण और विशेष श्रृंगार शामिल होते हैं। उसका रूप इतना प्रभावशाली होता है कि दर्शक उसमें देवता की छवि देखने लगते हैं।
3. नृत्य और संगीत
चेंडे (ढोल), ताले, शंख और मंत्रोच्चार की ध्वनि में पात्र trance में जाता है। उसका नृत्य उग्र, भावनात्मक और आध्यात्मिक होता है — यह देवता के अवतरण का प्रतीक होता है।
4. संवाद और न्याय
पात्र देवता की वाणी में बोलता है। गांव के लोग अपने प्रश्न, समस्याएं और विवाद उसके सामने रखते हैं। देवता के रूप में पात्र समाधान देता है, जिसे सभी स्वीकार करते हैं।

भूत कोला दैव आराधना: लोक देवताओं की पूजा

भूत कोला में जिन देवताओं की पूजा होती है, उन्हें दैव कहा जाता है। ये देवता किसी मंदिर में नहीं, बल्कि खुले स्थानों — जंगल, खेत, तालाब या गांव के देव स्थान पर पूजे जाते हैं।
प्रमुख दैवों में पंजुरली (वराह रूप), कल्लुरती, कल्लुकुदा आदि शामिल हैं। ये देवता समुदाय की रक्षा करते हैं, न्याय देते हैं और संकटों से मुक्ति दिलाते हैं।

 दैव आराधना का सामाजिक महत्व

भूत कोला केवल पूजा नहीं, बल्कि एक सामाजिक न्याय प्रणाली है। यह परंपरा दर्शाती है कि देवता केवल पूजनीय नहीं, बल्कि समाज के मार्गदर्शक भी हैं।
यह अनुष्ठान लोकतांत्रिक संवाद, सामूहिक आस्था और प्राकृतिक संतुलन का प्रतीक है।

आध्यात्मिक गहराई

भूत कोला में देवता की उपस्थिति को केवल प्रतीकात्मक नहीं माना जाता — बल्कि यह माना जाता है कि देवता स्वयं पात्र के माध्यम से बोलते हैं। यह अनुभव दर्शकों के लिए आत्मिक जागरण का क्षण होता है।
यह परंपरा आत्मा, प्रकृति और विश्वास की त्रयी को जोड़ती है — जहां मानव केवल एक साधक होता है, और देवता मार्गदर्शक।

निष्कर्ष:
कांटारा फिल्म ने भारतीय लोक संस्कृति की उस परत को उजागर किया है, जो अब तक मुख्यधारा से दूर थी। भूत कोला जैसे अनुष्ठान केवल धार्मिक क्रियाएं नहीं, बल्कि समाज की आत्मा, न्याय व्यवस्था और प्रकृति से जुड़ाव का जीवंत प्रतीक हैं। इन उत्सवों की उत्पत्ति जनजातीय आस्था, भूमि की पवित्रता और देवता के प्रति समर्पण से हुई है। कांटारा ने यह सिद्ध किया कि लोक परंपराएं केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि वर्तमान की चेतना हैं — जो आज भी समाज को दिशा देती हैं। देवता और मानव के बीच संवाद, न्याय का लोकतांत्रिक स्वरूप, और आत्मा-प्रकृति-विश्वास की त्रयी इन परंपराओं को दिव्यता प्रदान करती है। इसलिए, कांटारा जैसे उत्सवों का संरक्षण न केवल सांस्कृतिक उत्तरदायित्व है, बल्कि आत्मिक पुनर्जागरण का मार्ग भी। यह हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है — जहां हर थाप में इतिहास धड़कता है, और हर मुखौटे में देवता बोलते हैं।

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