burning Ravana

रावण दहन की परंपरा और आज के युग में उसकी सार्थकता | The tradition of burning Ravana and its significance in today’s times

रावण दहन (burning Ravana )  भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो हर वर्ष दशहरे के दिन मनाया जाता है। यह परंपरा भगवान श्रीराम द्वारा रावण के वध की स्मृति में निभाई जाती है, जो बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। रावण, यद्यपि अत्यंत विद्वान और शक्तिशाली था, परंतु उसके अहंकार, अधर्म और स्त्री अपहरण जैसे कर्मों ने उसे पतन की ओर ले गया। उसका दहन हमें यह संदेश देता है कि कोई भी बुराई, चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो, अंततः पराजित होती है।आज के युग में रावण दहन (burning Ravana ) की सार्थकता और भी गहन हो गई है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्ममंथन का अवसर है। आधुनिक समाज में व्याप्त अहंकार, भ्रष्टाचार, हिंसा, असहिष्णुता जैसे दोषों को पहचानकर उनका अंत करना ही इस परंपरा की सच्ची भावना है। रावण दहन (burning Ravana )  हमें प्रेरित करता है कि हम अपने भीतर के रावण को जलाएं और एक बेहतर, नैतिक और सहिष्णु समाज की ओर अग्रसर हों। इस प्रकार यह परंपरा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी प्राचीन काल में थी।

रावण दहनएक सांस्कृतिक परंपरा का परिचय

भारतवर्ष में दशहरा का पर्व बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है। इस दिन रावण, मेघनाद और कुंभकरण के विशालकाय पुतलों का दहन किया जाता है। यह परंपरा रामायण की उस ऐतिहासिक घटना से जुड़ी है जिसमें भगवान श्रीराम ने रावण का वध कर सीता माता को मुक्त कराया था। रावण दहन का उद्देश्य केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि समाज को नैतिकता, सत्य और धर्म की ओर प्रेरित करना भी है।रावण को दस सिरों वाला राक्षस बताया गया है, जो विद्वान, शक्तिशाली और तपस्वी होते हुए भी अहंकार, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे दोषों से ग्रस्त था। उसका वध यह दर्शाता है कि चाहे कोई कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, यदि वह अधर्म के मार्ग पर चलता है तो उसका अंत निश्चित है।

रावण दहन की शुरुआत कब और कहाँ हुई?

भारत में रावण दहन की परंपरा रामायण काल से जुड़ी है, लेकिन सार्वजनिक रूप से पुतला जलाने की परंपरा आधुनिक युग में शुरू हुई और धीरे-धीरे पूरे देश में लोकप्रिय हो गई। ऐतिहासिक रूप से, रावण दहन की परंपरा 1948 के आसपास रांची (झारखंड) में शुरू हुई मानी जाती है। यह आयोजन पाकिस्तान से आए शरणार्थी परिवारों द्वारा किया गया था, जिन्होंने विजयादशमी के दिन रावण का छोटा पुतला जलाकर अच्छाई की जीत का प्रतीक स्थापित किया। इसके बाद 1953 में दिल्ली के रामलीला मैदान में पहली बार बड़े स्तर पर रावण का पुतला जलाया गया, जो धीरे-धीरे उत्तर भारत में दशहरे का अभिन्न हिस्सा बन गया। प्रारंभ में रावण के पुतले कपड़े और बांस से बनाए जाते थे, बाद में इनमें आतिशबाज़ी और सजावट भी शामिल हुई।

 आज के युग में रावण दहन की प्रासंगिकता

वर्तमान समय में जब समाज अनेक प्रकार की चुनौतियों से जूझ रहा है—जैसे भ्रष्टाचार, हिंसा, असहिष्णुता, और मानसिक तनाव—रावण दहन का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह केवल एक पुतले का दहन नहीं, बल्कि हमारे भीतर छिपे रावण रूपी दोषों का अंत करने का प्रतीक बन चुका है।

आधुनिक समस्याओं से जुड़ी बुराइयाँ:

  • अहंकार और स्वार्थ: आज का मनुष्य अपने लाभ के लिए दूसरों को नुकसान पहुँचाने से भी नहीं चूकता।
  • ईर्ष्या और द्वेष: सामाजिक और व्यक्तिगत संबंधों में विष घोलने वाली प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं।
  • असहिष्णुता और हिंसा: विचारों की भिन्नता को स्वीकारने की क्षमता घटती जा रही है।

रावण दहन हमें इन बुराइयों को पहचानने और उनसे मुक्ति पाने की प्रेरणा देता है।

रावण दहन का मनोवैज्ञानिक और सामाजिक संदेश

रावण दहन एक सामूहिक आयोजन होता है जिसमें पूरा समाज एकत्रित होकर बुराई के प्रतीकों को जलाता है। यह प्रक्रिया मनोवैज्ञानिक रूप से व्यक्ति को आत्ममंथन और आत्मशुद्धि की ओर प्रेरित करती है।

रावण दहन का मनोवैज्ञानिक लाभ:

  • आत्मनिरीक्षण: व्यक्ति अपने भीतर की कमजोरियों को पहचानता है।
  • सामूहिक चेतना: समाज एकजुट होकर नैतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करता है।
  • सकारात्मक ऊर्जा का संचार: उत्सव के माध्यम से मानसिक तनाव कम होता है।

यह पर्व हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमने अपने भीतर के रावण को जलाया है? क्या हम केवल बाहरी पुतले को जलाकर संतुष्ट हो जाते हैं या वास्तव में आत्ममंथन करते हैं?

 सांस्कृतिक एकता और सामाजिक समरसता

भारत जैसे विविधता-पूर्ण देश में रावण दहन एक ऐसा पर्व है जो विभिन्न समुदायों को एक मंच पर लाता है। यह सांस्कृतिक एकता और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है। सांस्कृतिक पहलू:

  • भाषा, धर्म और जाति से परे एकता का संदेश
  • लोक कला, नाटक और रामलीला के माध्यम से सांस्कृतिक अभिव्यक्ति
  • बच्चों और युवाओं को नैतिक शिक्षा देने का अवसर

रामलीला के मंचन से बच्चों को भारतीय संस्कृति, धर्म और इतिहास की जानकारी मिलती है। यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी नैतिक मूल्यों को स्थानांतरित करने का माध्यम बनती है।

रावण दहन को सार्थक कैसे बनाएं

आज के युग में रावण दहन को केवल एक परंपरा मानने के बजाय इसे आत्मविकास और सामाजिक सुधार का माध्यम बनाना चाहिए।

 सुझाव:

  • प्रतीकात्मक रावण बनाएँ: जिसमें अहंकार, भ्रष्टाचार, नशा, हिंसा जैसे दोष लिखे हों।
  • स्कूलों और कॉलेजों में संवाद आयोजित करें: ताकि युवा पीढ़ी इसकी गहराई को समझ सके।
  • पर्यावरण के प्रति सजग रहें: पुतलों में हानिकारक सामग्री का प्रयोग न करें।
  • महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा पर चर्चा करें: क्योंकि रावण का वध स्त्री अपहरण के विरोध का प्रतीक भी है।

यदि हम रावण दहन को केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि एक सामाजिक अभियान के रूप में देखें, तो यह समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है।

 निष्कर्ष— रावण दहन की परंपरा से प्रेरणा 

रावण दहन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सामाजिक और नैतिक आंदोलन है। यह हमें हर वर्ष याद दिलाता है कि चाहे कितनी भी बड़ी बुराई हो, सत्य और धर्म की विजय निश्चित है। अगर हम इस पर्व को आत्ममंथन और सुधार का अवसर मानें, तो यह हमारी व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति का मार्ग बन सकता है।

आज आवश्यकता है कि हम रावण को केवल एक पुतले में न देखें, बल्कि अपने भीतर झाँकें और उस रावण को पहचानें जो हमें सच्चे मानव बनने से रोकता है। तभी रावण दहन की परंपरा वास्तव में सार्थक होगी।

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