खोरठा लोककथा, सोहराई पर्व, फुचु और फुदनी | khortha lok katha sohraie ke prtap

खोरठा लोककथा: सोहराएक परताप : लोककथाएं किसी भी समाज की सांस्कृतिक स्मृति होती हैं। यह कथाएं न केवल मनोरंजन करती हैं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को भी पीढ़ी दर पीढ़ी संप्रेषित करती हैं। खोरठा लोककथाओं की यह परंपरा भी अत्यंत समृद्ध है। प्रस्तुत कथा “सोहराएक परताप” एक ऐसी मार्मिक प्रेमकथा है जो प्रेम, लोकविश्वास और जीवन की विडंबनाओं से जुड़ी है।

नदी, घोर और डिह

एक समय की बात है। एक बड़की नदी के पार एक गाढ़ा था – आखाढ़ पानिक दह। वहीं नदी के हदहदी के किनारे एक जमक डिह था, जहाँ लोग बहुत डर के साथ रहते थे। इस डिह में बस दो ही घर थे, जिनमें गीदर जाति के लोग रहते थे।

फुचु और फुदनी

इन दो घरों में एक घर में फुचु नामक लड़का और दूसरे घर में फुदनी नाम की लड़की रहती थी। दोनों एक ही उम्र के थे, और बचपन से ही एक-दूसरे के बेहद करीब। मछली पकड़ने से लेकर सूत काटने, पुनी बनाने, जाल बुनने तक—दोनों हर काम में एक-दूसरे के सहयोगी थे।

फुचु जाल बुनता तो फुदनी सूत काटती। फुचु सूत कातता तो फुदनी पुनी बनाती। जब फुचु नदी में जाल डालता, तो फुदनी मछलियों को बीछ-बीछ कर टोपे में भरती। गाँव के लोग कहते, “फुचुक गातेक जुड़ा फुदनी लागइ, आर फुदनिक गातेक जुड़ा फुचु लागइ।”

प्रेम का परिपक्व होना

समय बीतता गया और दोनों बचपन से किशोरावस्था में प्रवेश कर गए। उनका प्रेम इतना गहरा हो गया कि एक-दूसरे के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। फुचु कहता, “फुदनी के बिना जिनगी अधूरा,” और फुदनी कहती, “फुचु से छिनगइ तो अन्हार हो जइत।”

गाँववाले भी इस प्रेम को स्वीकारने लगे और दोनों के विवाह की बातचीत शुरू हो गई। केवल विधिवत नेग-चार की औपचारिकताएं बची थीं।

सोहराइ और शोक

इसी बीच सोहराइ पर्व नजदीक आया। गाँव में तैयारियाँ शुरू हो चुकी थीं। लेकिन तभी फुचु के घर एक लेरु (पशु) की मृत्यु हो गई। फुचु के पिता ने शोकवश पूरे साल सोहराइ न मनाने का निर्णय लिया। वह स्वभाव से पहले ही चिड़चिड़े और हठी थे, अब और ज्यादा हो गए।

सोहराइ के दिन जब गाँववाले उल्लास में डूबे थे, तब फुचु को पिता ने मछली पकड़ने भेजा।

अंतिम मिलन और दुर्घटना

फुचु मन ही मन फुदनी के साथ जाने की उम्मीद कर रहा था, लेकिन फुदनी घर के काम में व्यस्त थी। उसने माफी माँग ली और कहा कि आज वह नहीं आ सकती।

फुचु अकेले ही अपने जाल लेकर निकल पड़ा। लेकिन उस दिन कुछ भी ठीक नहीं हुआ। मछली नहीं फँसी, जाल बिगड़ने लगा। अचानक उसका पैर फिसला और वह सीधे गहरे पानी में डूब गया।

बाद में गाँववालों को पता चला कि फुचु की मृत्यु हो चुकी है।

लोकगान और स्मृति

कहा जाता है कि फुदनी आज भी फुचु की याद में उसकी जगह थुभड़े बैठती है, और गाँव की औरतें सोहराइ के समय गाती हैं:

 “ओह रे! ओ!! सोहराएक बेरें,
बाप-पुता माछा मारे जाय,
माछा मारइतें धोर-थोरवाक हदहदी,
केंटा डुबलइ, केंटिन बेटी रह ली कुँआरी हो।”

 

निष्कर्ष

“सोहराएक परताप” खोरठा समाज की एक सांस्कृतिक स्मृति है, जिसमें प्रेम, परंपरा, बाधाएँ और त्रासदी का संगम है। यह कथा दर्शाती है कि लोकजीवन में त्योहार, प्रेम और मृत्यु एक गहरे भावनात्मक जुड़ाव के साथ कैसे गुंथे रहते हैं।

 

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