कुरमाली लोककथा कर्म और धर्म : “कर्म और धर्म नामक दो भाइयों की कहानी है, जो प्राचीन भारत में साथ रहते थे। समय ने उन्हें अलग कर दिया—धर्म ने अपने प्रयास और सिद्धांतों को बनाए रखा, जबकि कर्म भाग्य के भरोसे हो गया। कर्म की पत्नी ने एकादशी व्रत तोड़ा और तभी उनके जीवन में कठिनाइयाँ आईं। दुर्भाग्य से पीड़ित होकर वे करम देवता की खोज में निकले, रास्ते में विभिन्न जीव-जंतुओं की समस्याएँ सुनीं और अंततः करम वृक्ष की टहनी प्राप्त की। जब उन्होंने दूसरों की मदद की और स्वयं पूजा-अर्चना की, तो उनके जीवन में सुख लौटा। यह कथा आचरण, सेवा, और श्रद्धा की शक्ति को दर्शाती है | कर्म और धर्म की प्रेरणादायक कुरमाली लोककथा, जो आचरण, श्रम, और करम देवता की कृपा से जीवन परिवर्तन का संदेश देती है। पढ़ें एकादशी व्रत, करम यात्रा और पुनर्जागरण की अद्भुत कथा।”
कुरमाली लोककथा: कर्म और धर्म
प्राचीन काल की बात है, जब दो भाई — कर्म और धर्म — सपरिवार शांतिपूर्ण जीवन-निर्वाह कर रहे थे। परिस्थितियों ने करवट ली और दोनों की नीति बदल गई, परिणामस्वरूप दोनों में फूट हो गई। धर्म ने आचरण और कर्तव्य पर भरोसा बनाए रखा जबकि कर्म भाग्य के सहारे जीने लगा। धर्म समृद्ध होता गया, और कर्म का जीवन संघर्षपूर्ण बन गया।दोनों में फ़ुट हो गया और अलग हो गया। लेकिन धर्म ने अपने आचरण और कर्तव्य पर विश्वास किया था, दिन प्रतिदिन समृद्ध हुआ और बड़े भाई कर्म भाग्य के विश्वास जीवन-निर्वाह कर रहा था, समय ने उसे साथ नहीं दिया। कालोपरान्त कर्म के परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ। वह भादो का महीना था। अन्य ग्रामीण राक्षसों के साथ उस बच्चे की माँ ने भी रखा एकादशी व्रत। एकादशी का व्रत तोड़ने के अजीब शैतान ने बसी भात को आहार सप्रेम भोजन कराया। लेकिन कर्मा की पत्नी ने बच्चे को देखकर लग जाने के डर से बसी भात को त्यागकर गरम भात खाई। ख़ारिज ही उन लोगों की परिस्थितियाँ इतनी भिन्न हो गईं कि मानो विधाता ने उन्हें शाप दे दिया हो। रिश्ते घर वार्ता-लाते आधे से अधिक समाप्त हो जाते हैं। एक दिन नास्ता नहीं मिलने के कारण वे बर्बाद हो गए। कर्मा और उनकी पत्नी ने निराश होकर रात में धर्म के खेत में रस्सी धान उखाड़कर फेंकना शुरू कर दिया। इसी के बीच कहीं से भी विधि और विधान, वहां के क्षेत्र और उनके द्वारा गए कर्मों का कारण पूछा जाता है। उन लोगों ने सही-सही बातें अपनी सामने रखीं। विधि-विधान ने कर्म की हस्त रेखा को देखकर बताया कि तुम लोगों का करम सात समुद्र पार एक करम वृक्ष के नीचे दबाओ। करम देवता रूठ गए हैं। जब तक तुम उससे खुश नहीं करोगे, तब तक मित्र दुःख दूर नहीं
करम देवता और यात्रा की शुरुआत
कर्म और उसकी पत्नी की विधि-विधान के अनुसार गणतव्य स्थान की ओर चल पड़े। वे इतनी थक गए कि उनकी आगे की नियुक्ति दोबारा शुरू हो गई। भूख उन्हें सताने लगी। कुछ दूर उन्हें एक बेर का पेड़ दिखाई दिया। मे बहुत पुरानी बात है, जब समय सादा था, न तामझाम था और न छल-कपट। एक गाँव में दो सगे भाई रहते थे—कर्म और धर्म। दोनों का जीवन शांत था, सादगी में सजीव था। वे परिश्रमी थे, सच्चे थे और मिल-जुलकर रहते थे। समय ने करवट ली। परिस्थितियों की आँधी में दोनों भाइयों की जीवन-दिशा बदल गई। कर्म को भाग्य का सहारा भाने लगा, वह प्रतीक्षा करने लगा—“कुछ अच्छा होगा…”। दूसरी ओर धर्म ने अपने आचरण और श्रम पर भरोसा बनाए रखा। धीरे-धीरे धर्म की दुनिया सजने लगी। खेत लहलहाने लगे, घर में खुशियाँ आने लगीं। लेकिन कर्म का जीवन छीजता गया। आलस्य और भ्रम के जाले उसके आसपास फैल गए। एक दिन कर्म के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। संयोग से वही भादो की एकादशी थी। गाँव की स्त्रियों ने व्रत रखा। कर्म की पत्नी ने भी संकल्प लिया, लेकिन जैसे ही भूख बढ़ी, उसने व्रत भंग कर दिया। उसी दिन से दुर्भाग्य ने पाँव पसारना शुरू कर दिया। समय गुज़रा। भूख, अभाव और अपमान उनके जीवन में घर कर गए।
बूढ़े व्यक्ति और करम वृक्ष की टहनी
एक रात कर्म और उसकी पत्नी ने निर्णय लिया कि वे धर्म के खेत में चोरी से धान उखाड़ देंगे। जैसे ही वे खेत में पहुँचे, उन्हें किसी अदृश्य शक्ति की आवाज़ सुनाई दी—”जो बोया नहीं, वह काट भी नहीं सकता।” घबराकर दोनों ने अपनी व्यथा सुनाई। उसी आवाज़ ने उन्हें बताया कि उनका भाग्य सात समुद्र पार करम वृक्ष के नीचे दबा है। जब तक वे करम देवता को प्रसन्न नहीं करेंगे, तब तक सुख संभव नहीं। उसी क्षण से उन्होंने यात्रा आरंभ की। रास्ते में उन्हें कई जीव-जंतु मिले—भूखा घोड़ा, भटकती गायें, बेर का कीड़ा-लदा पेड़। सबने अपने दुःख साझा किए और करम देवता से समाधान पूछने की विनती की। सात समुद्र पार करने के बाद वे एक अजीब बूढ़े व्यक्ति से मिले। वह घावों से पीड़ित था, मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। दोनों को पहले घृणा हुई, पर विधि-विधान की बात याद आई—“जिसे संसार त्यागे, उसी में ईश्वर वास करे।” उन्होंने बूढ़े को प्रणाम किया। उसने ही करम वृक्ष की एक टहनी दी और कहा—”इसे श्रद्धा से पूजना, अपने दुख बताना, सब हल होगा।” साथ ही उन्हें एक गंदे तालाब में स्नान करने को कहा। डरते हुए भी उन्होंने यह कर्म किया। वापसी की राह में उन्हें फिर वही जीव-जंतु मिले। उन्होंने सबको समाधान बताए—
घोड़े को कहा: “जब तक किसी के घर सेवा न करेगा, सुख नहीं मिलेगा।” गायों से कहा: “किसी की गोशाला में बसे बिना चैन नहीं आएगा।” और उस स्त्री से, जिसकी पीठ से सोने की पिंढ़िया चिपकी थी—“जब तक दान नहीं दोगी, मुक्त नहीं हो पाओगी।” सब उनके साथ चल पड़े।
सफलता और पुनर्स्थापना
अंततः वे उसी पेड़ के पास पहुँचे जहाँ पहले आकाशवाणी हुई थी। वहाँ से आवाज आई—”जड़ के नीचे पाँच कलश गड़े हैं, जो किसी योग्य गरीब को ही मिलेंगे। तुम दोनों उन्हें पा सकते हो।” उन्होंने कलश निकाले, घोड़े पर लादा और घर लौटे। घर पहुँचकर गोबर से आँगन लीपा, दरिद्रों को दान दिया, गायों को रखा, करम डाली को आंगन में गाड़कर उसकी विधिपूर्वक पूजा की। भादो एकादशी के उस पावन दिन, जब सबने कर्म के साथ धर्म को भी स्वीकारा, तभी से सुख ने घर बनाया। अब कर्म भी सच्चा हो गया था—संघर्षशील, श्रद्धावान और सेवाभावी।
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