“अँधरा धरा बुझल बाँका खीर” एक मार्मिक लोककथा है जो खोरठा भाषा में रची गई है। यह कहानी दो विशेष पात्रों – एक अंधे व्यक्ति और एक लंगड़े व्यक्ति – की गहरी दोस्ती, आपसी समझ और भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाती है। दोनों की शारीरिक सीमाएं उन्हें एक-दूसरे के पूरक बना देती हैं, और उनका साथ जीवन की कठिनाइयों को सहज बना देता है। यह कथा ग्रामीण जीवन, लोक संस्कृति और परस्पर सहयोग की भावना को उजागर करती है, जिसमें स्वाद, अनुभव और भावनाएं एक-दूसरे से जुड़ती हैं
अँधरा बुझल बाँका खीर
एगो गाँवें एगो अँधरा आर एगो लेढ़ा संगी रहऽ हला। दुइयो में बहुते परेम आर संग हलइन। पोरब-तिहार बा कोनो काज-सोहाग के समइ दूइयो तइसने अँधरा आर लेढ़ा एके संग रहतला। लेढ़ा काना के कइह-कइह सब काथा सुनाइ बुझाइ देतलइ । तइसने काने के जे कहूँ जाएक रहतइ ओकराँ कांधें कइर लइ जितलइ। दूइयो एक दोसरोक बिना रहे नाँइ पार-हला। दूइयो रोइज गाँवेक मुड़ाँइ आइकें भेंट करतला, आपन-आपन हाल-चाल पुछा-पुछी हतला तकर बाद घुइर जितला।
एक बइर अइसन भेलइ जे लेढ़ा पोहनागी चइल गेल। आठ-दस दिन हुँधी रहल। सइ समइ अँधरा एकाइ भइ गेल। रोइज गाँवेक मुँड़ा जाइ आर घुइर आवे। लेढ़ा सें भेंट नाँइ पाइ तनी मनझान रहे लागल । काहे कि लेढ़ा ओकर सबले बोड़ संगी रह-ऽ हलइ ।
पोहनागी साइरकें लेढ़ा घार घुरल तो ओकर मन नाँइ लागे। अँधरा सें भेंट करे ले ओकरो जीउ छटपटाइ लागलइ ।
एक दिन अइसन जोंखा जे फइर दूइयो के ओहे गाँवेक मुँड़ाइ भेंट भइ गेलइन। ढेइर दिन बादें भेंट पाइकें दूइयो ढेइरे खुस भेलथ । एगो गाछेक जुड़ाँइ बइस दूइयो पुछा-पुछी करे लागला। लेढ़ाइँ पुछलइ – “कह भाइ ठिके हैं ना ?”
“ठीके तो हों, मेंतुक तोर बिना दुनियाँइ आंधार। तोंइ नाँइ रही कें एकाइ भइ गेल हलों।”काना आपन हिरदयेक बात कहलइ । फेर पुछलइ-
“एते दिन तोंञ कहाँ गेल हलें ?”
लेढ़ा कही सुनवलइ जे अचक्के ओकर मामु घार जाएक जोंखा लागलइ आर ऊ घारेक लोकेक संग मामु घार चइल गेल से लेल ओकर एतना दिन भेंट नाँइ भेलइ। लेढ़ा मामु घारेक नाम सुइन खुसीं उछइल उठल आर पुछलइ- हबें?” “हाँ रे, कह तो! मामु घारें तो खुब बेस-बेस जिनिस खाइल
“हाँ, खुब बेस-बेस खइलियोउ। पुआ, पिठा, अइड़सा, धुसका, पँइनरसका, घाँटरा आर खीर ! आरो कते-कते।”
अँधरा आर सब तो खाइल हल, मेंतुक ऊ कधियो खीर नाँइ खाइल हल। से लेल खीरेक नामें चोकाइ उठल-
“हाँ रे खीर कइसन हवइ ?”
“चार, दूध आर गुड़ मेंसाइ खीर हवे। बड़ी सवाद!”
“दूध कइसन हवे ?”
“चरक-चरक !” लेढ़ाक कहल आँधरा बेस तरि बुझे नाँइ पाइल तखन चुपे रहल। ओकराँ चुप देइख लेढ़ा बुझे पाइल जे ऊ बेस तरि बुझवे नाँइ पारल हइ। ऊ फेर फुरछाइ कें पुछलइ-
“बोंक देखल हैं? बोंक !”
“बोक कइसन हवइ ?” अँधरा फेर पुछल। लेढ़ाँ जाने पाइल जे एकराँ बेस तरि नाँइ बुझवे पाइर रहल हइ। सइ लेल ओकर मने एगो उपाइ सुझलइ। ऊ अँधरा के कहलइ-
“तोंञ हिंयें बइस हामें एखने तुरते आवऽ हियोउ।” एतना कही कें लेढ़ा हुआ से चइल गेल आर अँधरा ओकर आसें बइसल रहल।
एक घरी बादें लेढ़ा एगो बोंक धइरकें आनल आर अँधराक आगु बाटें राइखकें कहलइ-
“ई देख, अइसने बोंक रकम चरक-चरक दूध हवइ जकर से खीर बनइ।”
अँधरा एखन चाँड़ा-चाँड़ी बोंक के गोड़ से मुड़ तक टमोइर के देखलइ आर कहलइ-
“बुइझ गेलियो, अइसने चरक-चरक बाँका दूध हवइ। तब तो
अइसने बाँका खीरो हवइत हतइ ! अइसन बाँका खीर कइसें खाइ पारलें तोंञ ? हामें तो अइसन बाँका खीर नाँइ खाइ पारबोउ।”
अँधराक काथा सुइन लेढ़ा माथा धइर कें बइस गेल। अँधराक लाख बुझवेक चेस्टा करे लागल, ताओ ऊ माने ले तइयार नाँइ जे खीर बाँका नाँइ हवे।
हिंदी में अँधरा बुझल बाँका खीर का सारांश
कहानी में एक गाँव में रहने वाले दो घनिष्ठ मित्र – एक अंधा और एक लंगड़ा – साथ रहते हैं। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं और हर पर्व-त्योहार या काम में साथ रहते हैं। लंगड़ा अपने दोस्त को कहानियाँ सुनाता है और उसे कंधे पर बैठाकर घुमाता है। एक बार लंगड़ा अपने मामा के घर चला जाता है और कई दिन तक वापस नहीं आता। अंधा अकेला हो जाता है और उसे अपने दोस्त की बहुत याद आती है।जब दोनों की फिर से मुलाकात होती है, तो वे बहुत खुश होते हैं। लंगड़ा अपने मामा के घर में खाए गए स्वादिष्ट पकवानों का वर्णन करता है, जिसमें खीर भी शामिल है। अंधा कभी खीर नहीं खाया होता, इसलिए वह खीर के स्वाद और दूध के बारे में पूछता है। लंगड़ा उसे समझाने की कोशिश करता है, लेकिन अंधा नहीं समझ पाता। तब लंगड़ा एक बोंक (गाय) लाकर उसे दिखाता है और कहता है कि इसी तरह की गाय का दूध चरक-चरक होता है जिससे खीर बनती है।अंधा गाय को छूकर समझ जाता है और कहता है कि अगर खीर इतनी सुंदर गाय के दूध से बनती है, तो वह उसे कभी नहीं खा पाएगा। यह संवाद दर्शाता है कि अनुभव और समझ की सीमाएं कैसे भावनाओं को प्रभावित करती हैं।